Thursday, August 25, 2011

रुका हुवासा है, आज जमाना एक

मागे एकदा मी "कृष्णा..." ही कविता टाकली होती, तीच आज हिंदीतून अशी आली...
(राधा-कृष्णा बद्दल कित्ती तरी लिहिलं गेलं. पण राधेने कृष्णाचा शेवट कसा पेलला असेल याचा विचार करताना हे सुचले.)


रुका हुवासा है, आज जमाना एक
ठंड के छोटे छोटे दिन, धुंद में लिपटी शाम
चुपचाप खडे पेड, धुंदलीसी राह
यमुनाका नीरव किनारा, ठहराया शामल जल
गहरी परछाईयाँ, हिलाते हुए पेड
हलकेसे डुबकी लगाती नीली मछली एक
और पावोंमे चुभती हुई सफेत रेत
रुका हुवासा है, आज जमाना एक

तुम्हारा लाडला कदंब, आज झुका हुवा क्यू है
यमुना की लहरे, आज रुकी रुकी क्यू है
अष्टमी की चाँदनी, आज उदास सी क्यू है
पवन की बांसुरी, आज ऐसी अबोल क्यू है
आसमंत मे आज, सन्नाटे की आहट क्यू है
और इस सन्नाटे के बोल, आज आर्त क्यू है
रुका हुवा सा जमाना, आज क्यू है

खाली है यमुनाकी रेत
खाली है कदंब की छाया
खाली है वृंदाबन का खेल
खाली है मथुरा का कुंभ
खाली है बांसुरीका सूर
खाली है आत्मा की उमंग
है कदंबके पैरोंतले सिर्फ तीर एक
रुका हुवासा है, आज जमाना एक

"हाय ssss....
बस, बस, अब बस भी करो...
नहीं, नहीं, न जाओ...
ठहरो, मुझे भी ले चलो..."
और फिर एक सन्नाटा...
रुका हुवासा है, आज एक जमाना

कल की सुबह हुई, लेके साथ में
सूरज की बुझी बुझी आखें
आसमंत की नीरविकार आखें
कदंब की नीरस हुई आखें
आकाशकी झुकी झुकी आखें
धरती की सुखी सुखी आखें
पवन की गिरी हुई आखें
और यमुना की भरी हुई आखें
पार्थीव राधाका, लिये साथ में
और कहीं दूर, दूर वहाँ जंगलों में
................ श्याम का
रुका हुवासा है, आज एक जमाना

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