Friday, April 22, 2011

सृजनाचा सोहळा

आधी एक धून मनात हुरहुरत होती, मग त्यातून हिंदी शब्दच फुटले....


"बहारों ने इतना रुलाया है मुझ को
कई बरसातें बरस गई , यारों....

गुल खिले है इतने रंगीत सारे
के रंग जिंदगीका उजडा हुआ है

लदी हुई है टहनी, फलोंसे
पर नीरस हुई है जवान सॉसें

पेडों पर निकले है पत्ते बहार के
बस उजड गया है आशियाना यारों "

पण मग ती मराठीतही लिहिली...

वसंताने इतके रडविले, मला की
बरसूनी गेले, पावसाळे किती ....

फुलली फुले, इतुकी रंगीत सारी
की रंग माझ्यातले सारे, गेले विरुनी ....

फळांनी किती लवली फांदी, फांदी
की रसाळता सारी, आटुनी गेली ....

पालवी फुटे उतुकी , कोवळी कोवळी
की सृजनता सारी, शोषुनी गेली ....

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